भारत विशेषकर पूर्वी एवं पश्चिमी भारत में तेजी से चल रहीं फ्राड इन्वेस्टमेंट कंपनियों के कारण अब शेयर बाजार भी चिंतित होने लगा है। पिश्चम बंगला का चिटफंड घोटाला तो शायद देश का सबसे बड़ा प्राइवेट धोखाधड़ी का मामला है। हालात यह हैं कि शेयर बाजार के विशेषज्ञ भी इस पर डिस्कस करने लगे हैं और यदि हालात यही रहे तो आने वाले दिनों में अच्छी कंपनियों को भी सरकारी डंडे की मार झेलनी होगी। इसलिए बहुत जरूरी है कि अपना बाजार साफ करें और फर्जीवाड़ा करने वालों को बाहर भगाएं।
आनलाइन शापिंग, एमएलएम, नेटवर्क मार्केटिंग एवं चिटफंड के नाम पर हो रहे तमाम ठगी योजनाओं के संदर्भ में देखिए क्या कुछ लिखा है मुद्रामंत्र के सुबीर रॉय ने
मुद्रा मंत्र/सुबीर रॉय/ पूर्वी भारत एक गंभीर व्यथा से जूझ रहा है, और पश्चिम बंगाल के कदम तो एक भीषण संकट की ओर बढ़ चले हैं। सामूहिक निवेश योजनाओं के नाम से जाने जानी वाली फर्जी योजनाएं कुकुरमुत्तों की तरह पनप रही हैं। इन्हें चिटफंडों, बहुस्तरीय विपणन कंपनियों और कमोडिटी योजनाओं जैसे अलग-अलग नाम से जाना जाता है। ये आम लोगों, खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में लोगों की बचत का बड़ा हिस्सा जुटा रही हैं।
सभी योजनाओं का हश्र एकसा होता है। ये विफल साबित होती हैं (इनमें से कुछ तो पहले ही ध्वस्त हो चुकी हैं) और एक दूरगामी परिणाम छोड़ जाती हैं। इन योजनाओं की वजह से जो सामाजिक तनाव पैदा हो सकता है उसकी कल्पना मात्र डराने के लिए काफी है।
वास्तव में चिटफंड बचत करने वालों का एक समूह होता है जो नियमित अंतराल पर इसमें रकम जमा कराते हैं और इनाम की राशि किसे दी जाएगी, इसका निर्धारण करने के लिए एक ड्रॉ किया जाता है। चिटफंड के संचालन की जिम्मेदारी जिसे सौंपी जाती है वही इसके खाते का प्रबंधन करता है, ड्रॉ कराता है और इसके बदले में उसे कमीशन मिलता है। समस्या यह है कि कई सारे तथाकथित चिटफंड पंजीकृत नहीं होते और इस वजह से वे कोई प्रतिफल नहीं दे पाते।
बहुस्तरीय विपणन योजनाओं को बिक्री एजेंट चलाते हैं और दूसरे एजेंटों को भर्ती कर वे भारी भरकम कमीशन कमाते हैं। वहीं कमोडिटी योजनाएं बॉन्ड जारी करती हैं जिन पर बीजों, टीक के पौधों और आलुओं जैसी जिंसों के व्यापार पर प्रतिफल का दावा किया जाता है। योजनाएं चाहे जो भी हों वे भारी भरकम प्रतिफल के दावों पर चलती हैं, जिनके झांसे में नासमझ निवेशक फंस जाते हैं। नए सदस्य जो निवेश करते हैं उन्हीं पैसों से प्रतिफल दिया जाता है, जब ताजा पूंजी आना बंद हो जाती है तो योजना ध्वस्त हो जाती है। इस पूरी बात का सार यही है कि कोई भी वैध वाणिज्यिक गतिविधि निरंतर इतना अधिक प्रतिफल नहीं दे सकती।
ठगे गए निवेशकों ने 2007 में मेघालय में कांग्रेस के तात्कालीन प्रमुख के खिलाफ एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दाखिल की थी। साल 2009 में इसी से मिलती जुलती शिकायतों की वजह से ओडिशा में एक फिल्म अभिनेता और निर्माता को गिरफ्तार किया गया था और पिछले साल के अंत में झारखंड के ग्रामीण इलाकों में अपनी यात्रा के दौरान मैं ऐसे लोगों से मिला जो अपनी जमा पूंजी खो चुके थे। मगर फिलहाल ऐसे मामले ज्यादातर पश्चिम बंगाल में ही देखने को मिलते हैं। और यह कोई नई बात नहीं है।
अप्रैल 2011 में जब राज्य विधानसभा के चुनाव हो रहे थे जिसने तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में काबिज किया, तभी एक समाचार रिपोर्ट ने एक बार फिर से चिट फंड का आतंक लौटने की बात कही थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे पश्चिम बंगाल के दो जिलों में इस तरह की विफल योजनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ मामले की शुरुआत हो चुकी है। (पहले पहल सरकार संचयिता की विफलता से घबराई हुई थी।) शायद इसका अंदाजा लगाते हुए ही वामपंथी सरकार ने 2009 में विधेयक पारित कर ऐसी योजनाओं के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की बात की थी।
पश्चिम बंगाल में फिलहाल विपक्ष की भूमिका निभा रही वाम और कांग्रेस पार्टियां सबके सामने इन योजनाओं का मसला उठा रही हैं और इन मामलों में तृणमूल कांग्रेस सरकार की निष्क्रियता उजागर कर रही हैं। तृणमूल कांग्रेस ने इस पूरे मसले पर चुप्पी साध रखी है और पार्टी के नेता बचाव की मुद्रा में हैं। इस तरह ऐसे संकेत मिल रहे हैं मानो उनके हाथ बंधे हुए हों। मीडिया पहले ही इस सरकार को लेकर निराशा व्यक्त कर चुकी है, हालांकि इन योजनाओं को चलाने वाले ऑपरेटरों के टीवी चैनलों और अखबारों ने ममता बनर्जी के शासन का पुरजोर समर्थन किया है। इस तरह यह एहसास और पुख्ता हो जाता है कि बनर्जी उनके समर्थन पर निर्भर हैं।
इन योजनाओं के मालिक जिलों में अपनी धाक जमाने के लिए फिल्मी सितारों और हस्तियों को बुलाते हैं। इन्होंने रियल एस्टेट, मीडिया और पर्यटन बुनियादी ढांचों जैसे कि रिजॉर्ट होटलों में भारी निवेश कर रखा है। वे मीडिया में बढ़ चढ़कर विज्ञापन देते हैं। विज्ञापन उनके निवेश के बारे में होता है, उस रकम के बारे में नहीं जो वे लेते हैं। विपक्ष के आरोपों का जवाब देने के लिए सही तरीके से पंजीकृत चिट फंड ऑपरेटर (इनमें से कुछ का संबंध तृणमूल से भी है) ऐसे फर्जी ऑपरेटरों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। ये ऑपरेटर मीडिया से भी सवाल कर रहे हैं कि आखिर वह ऐसे जालसाज ऑपरेटरों के विज्ञापन क्यों ले रही है। हाल के दिनों में अलग-अलग वर्ग इस बारे में चिंता जताने लगे हैं।
लघु बचत विकास अधिकारियों के राज्य संगठन ने राज्य में लघु बचत संग्रह में आई कमी की ओर इशारा करते हुए खुले मंच पर कार्रवाई की मांग की है। साल 2010-11 में राज्य में लघु बचत 32,000 करोड़ रुपये था जो 2011-12 में घटकर 23,000 करोड़ रुपये रह गया। संगठन ने लघु बचत में आई इस कमी के लिए चिट फंडों को दोषी ठहराया है। राज्य में विपक्षी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सूर्य कांत मिश्रा ने आरोप लगाया है कि पिछले कुछ सालों में ऐसी कुछ योजनाओं ने 15,000 से 16,000 करोड़ रुपये जुटाए हैं।
हाल ही में कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज के प्रबंध निदेशक ने चेताया कि यह समस्या विकराल रूप ले सकती है। स्थानीय वित्तीय नियमन अधिकारियों ने ऐसे फंडों को पनपने दे रही नियामकीय खामियों की ओर इशारा करते हुए इसके प्रति चिंता जताई है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने पश्चिम बंगाल मामले में जांच शुरू भी कर दी है। राज्य सरकार भले ही दिन रात संसाधनों की कमी का रोना रोती है और यह आरोप लगाती है कि केंद्र उसकी मदद को तैयार नहीं है, मगर वह इस विधेयक को मंजूरी दिलाने के लिए केंद्र पर दबाव नहीं बना रही है। पर अगर इन बचत योजनाओं में लोगों का पैसा नहीं जाता तो वह खुद-ब-खुद आधिकारिक लघु बचत योजनाओं में जमा होता जिसके बदले में राज्य सरकार कर्ज ले सकती थी। मगर ऐसा हो नहीं रहा।
ji sahi hai
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